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आज की कविता-नवोदित कलमकार की कलम से


*हे ! मजदूर*
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अनुशंसा हे ईश्वर तुमसे,
देखो पैरों पर छाले हैं।
हृदय विदारद दृश्य है फिर भी,
हम सोते कर बन्द ताले हैं।

खून के छींटे देख सड़कों पर,
लम्बी राहें भी अब रोती हैं।
विवश,पथरीले खुद को पाकर,
कतिपय भी ना सोती हैं।

बिलखते आँसू से ना पूछो,
कंधो पर जिसने ढोया है।
बदन के गंगा जल से सींचा,
नवराष्ट्र को उसने बोया है।

उगता, बढ़ता आसमान पर,
जब जब सूरज ढलता जाए।
नापे दूरी मिलो की पल में,
सुकोमल पग वह बढ़ता जाए।

भूख की पीड़ा सहकर तुमने
अपनी जान गवाई है।
रुदन कर रही भारत माता,
ये कैसी विडंबना आई है।

स्वर्ग का ईश्वर ना जानू,
मैं ना जानू कोई सूर।
नतमस्त हौसलों पर तेरे,
भू का भूपति तू, हे मजदूर।

-- नवोदित कलमकार-चन्द्रहास तिवारी✍
*ग्राम-साराडीह,*
तहसील-डभरा
जिला- जांजगीर-चांपा

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