कहानी - रामप्रसाद बिस्मिल को दो दिन बाद फांसी होने वाली थी। उनकी मां उनसे मिलने जेल पहुंचीं। मां बेटे कुछ देर तक एक-दूसरे को देखते रहे। मां चाहती थीं कि रामप्रसाद कुछ बोलें।
रामप्रसाद कुछ बोल पाते, इससे पहले उनकी आंखों में आंसू आ गए। उन्हें लगा कि अगर मैं ज्यादा रोया तो मां भी रो देंगी, लेकिन आंसू रुके नहीं। वे बोल कुछ नहीं सके।
तब मां ने कहा, 'रामप्रसाद मैं तो तुझे बहुत वीर मानती थी, इतनी हिम्मत वाला व्यक्ति मेरे सामने मेरे लिए रो रहा है। जिसने भारत मां के लिए आंसू बहाए हैं, वह अपनी मां के लिए रोए, ये मुझे अच्छा नहीं लगा। तुम क्यों रो रहे हो? तुम तो जानते थे कि जिस राह पर तुम निकले हो, उसका परिणाम ये हो सकता है। और, तुम्हारी जान थोड़ी ली जा रही है, तुम मां के लिए जान कुर्बान कर रहे हो।'
अपनी माता की बातें सुनकर रामप्रसाद ने आंसू पोंछे और कहा, 'मां मैं यही सोच रहा था, आप मुझे कैसे समझाएंगी? आपने मुझे बहुत अच्छी तरह समझाया है। जानता तो मैं था ही, लेकिन भावनाओं की वजह से मेरे आंसू निकल आए।'
सीख - इस घटना के दोनों पात्र मां और बेटे ने हमें एक बात समझाई है कि कभी-कभी भावनाएं हमारे दृढ़ विश्वास को भी कमजोर कर देती हैं। इस घटना में दोनों ही पात्र कमजोर हो रहे हैं, लेकिन एक-दूसरे को संभाल रहे हैं। यही खूबी होना चाहिए। जब कोई बड़ी विपत्ति हमारे जीवन में आती है तो परिवार के सदस्यों को एक-दूसरे को शांति के साथ समझाने की कोशिश करनी चाहिए।
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