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शिवपुरी : दूसरों की सम्पत्ति को नहीं बल्कि उनके गुणों को ग्रहण करो : जैन साध्वी

 साध्वियों के सानिध्य में दादा गुरूदेव का पूजन हुआ सम्पन्न  



शिवपुरी। सुप्रसिद्ध जैन साध्वी श्री मणिप्रभा श्री जी महाराज साहब की आज्ञानुवर्ती शिष्याओं पूज्य श्री हेमप्रभा श्री जी, पूज्य श्री वैराग्यनिधी श्रीजी, पूज्य श्री आराधना श्रीजी, पूज्य श्री आगमनिधी जी, पूज्य श्री धैर्यनिधी श्रीजी महाराज साहब श्योपुर से पदविहार करते हुए शिवपुरी पधारी हैं। आराधना भवन में धर्मप्रेमियों को संबोंधित करते हुए जैन साध्वियों ने समझाईश दी कि हमें दूसरों की सम्पत्ति पर नहीं बल्कि उनके सदगुणों को ग्रहण करना चाहिए। क्योंकि आंख बंद होने के बाद सम्पत्ति हमारे साथ नहीं जाती, जबकि सदगुण आत्मा के आभूषण होते हैं और वह हमारे साथ जाते हैं। जीवन का चरम लक्ष्य आत्मिक उत्थान है। जिससे एक दिन आत्मा परमात्मा बनकर जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त करती है। श्वेताम्बर पाश्र्वनाथ जैन मंदिर में आज साध्वियों के सानिध्य में दादा गुरूदेव का पूजन विधिविधान पूर्वक सम्पन्न हुआ। 
साध्वी श्री हेमप्रभा श्रीजी ने बताया कि 84 लाख जीव योनि में सिर्फ मानव योनि ही एकमात्र ऐसी योनि है, जिसमें आत्मा का उत्थान संभव है। मनुष्य जीवन में जन्म लेने के लिए देवता भी तरसते हैं। मनुष्य जीवन उर्वरा भूमि की तरह है। जिसमें हमें कर्म करने का मौका मिलता है। चाहे तो हम नर्क का रास्ता चुन सकते हैं और चाहें तो जीवन को उध्र्वगामी बनाकर स्वर्ग और मौक्ष तक का लक्ष्य पूर्ण कर सकते हैं। मनुष्य जीवन ेमें आकर हमें सदगुणों का विकास करना चाहिए और मोह, माया, लोभ और अहंकार जैसे दुर्गुणों से दूर रहना चाहिए। उन्होंने कहा कि यदि कोई दूसरा हमारे साथ बुरा करता है तो हमें नकारात्मक नहीं बल्कि सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। इस संदर्भ में साध्वी जी ने ईसामसीह का उदाहरण देते हुए कहा कि उन्होंने उन लोगों के बारे में जिन्होंने उन्हें सूली पर चढ़ाया था, कहा था कि हे परमात्मा, हे ईश्वर इन्हें माफ करो। क्योंकि इन्हें नहीं पता कि सही क्या है, गलत क्या है। साध्वी जी ने कहा कि क्षमा सबसे बड़ा धर्म है। इसे चाहे क्षमा कहो या प्रेम या संवेदनशीलता। जीवन में सिर्फ धन सम्पत्ति कमाने का लक्ष्य मत बनाओ। उन्होंने एक भजन गाते हुए कहा कि न घर तेरा, न घर मेरा, चिडिय़ा रैन बसेरा। जिसे हमें छोडऩा पड़े उससे क्या लगाव रखना।  साध्वी मणिप्रभा श्रीजी महाराज साहब की दूसरी सुशिष्या श्री आराधना श्रीजी ने अपने उदबोधन में कहा कि इस संसार में आकर हम चाहते हुए भी पापों से नहीं बच सकते। इसीलिए प्रतिदिन हमें जाने अनजाने में किए गए कार्यो के लिए प्रतिक्रमण करना चाहिए। जिसमें किए गए पापों के लिए क्षमा याचना की जाती है। उन्होंने कहा कि वैसे तो रोजाना शाम को प्रतिक्रमण करना चाहिए। लेकिन यह संभव न हो तो 15 दिन में और यदि यह संभव न हो तो चौमासे में और यदि यह भी न हो तो सांवत्सरिक पर्व पर प्रत्येक धर्माबलंबी को प्रतिक्रमण करना चाहिए और वर्ष में जो एक बार भी अपने पापों का प्रायश्चित न कर सके उसे जैन कहलाने का अधिकार नहीं है। 

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