लौहपुरुष की राजनीतिक पारी का दुःखद अंत
श्रीगोपाल गुप्ता
परिवर्तन प्रकृति का नियम है मगर परिवर्तन विध्वंसक के बाद हो तो दुःखद है और शांति के साथ हो तो वह यादगार हो जाता है।लेकिन भारतीय जनता पार्टी के लौहपुरुष और राजनीतिक योद्धा लालकृष्ण आडवानी जी का परिवर्तन उनकी परम्परागत लोकसभा सीट गांधीनगर (गुजरात) में पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के हाथों हो, ये दुःखद है और अहसनिय है। मात्र 14 वर्ष की उम्र में आजादी से पहले राष्ट्रीय स्वंम सेवक संघ से जुड़कर उसके पूर्णकालिक प्रचारक बने आडवाणी भारत की राजनीति के धवल सितारे हैं, जिन्होने सन् 1951 में अपनी सेवायें भारतीय जनता पार्टी की पूरवर्ती जनसंघ को सोंप दी थी,इतना लंबा सफर व्यतीत हो जाने के बावजूद वे आज भी कायम थे। मगर पार्टी शीर्ष नेतृत्व ने हाल ही में संसदीय दल की बैठक में पार्टी के बुजुर्ग नेता आडवाणी और मनोहर जोशी को यह अधिकार दिये जाने कि अगला लोकसभा चुनाव-2019 लड़ना या न लड़ना उनकी इच्छाओं पर निर्भर है,बावजूद अगामी लोकसभा चुनाव में पार्टी के दावेदारों की सूची में लालकृष्ण आडवानी का नाम गांधीनगर से काटकर अमित शाह को दिया गया है।निश्चित यह फैसला आडवाणी जी के समर्थकों के लिए अहसनिय और दुःखद है।भारतीय जनता पार्टी के इतिहास में सन् 1970 से संसदीय राजनीति का हिस्सा बने आडवाणी सन् 1989 में पहली मर्तबा लोकसभा का चुनाव नई दिल्ली से लड़कर और जीतकर लोकसभा के सदस्य बने। उसके बाद सन् 1991 में पहली बार गुजरात के गांधीनगर से उन्होने लोकसभा का चुनाव लड़ा और लगातार जीतते हुये सन् 2014 तक गांधीनगर से ही सांसद चुने जाते रहे। कहा जाता है कि इंदिरा गांधी के निधन के बाद सन् 2984 में मात्र दो सीटों पर सिमटी भाजपा को फर्स से अर्श तक लाने का श्रेय आडवाणी जी को ही जाता है।
सन् 84 के बाद हताशा-निराशा के बहाव में बह रही भाजपा को सन् 1986 में राष्ट्रीय अध्यक्ष बने आडवाणी ने ही संभाला और इसका परिणाम सन् 1989 के चुनाव में जब दिखाई दिया तब परिणाम सामने आये। भाजपा ने आडवाणी के नेतृत्व में बड़ी छलांग लगाते हुये दो सीट से ब्यासी सीटों का सफर तय कर लिया। मगर आडवाणी यहीं नहीं रुके,उन्होने तात्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह के मंडल के जबाव में "कमंडल" राम रथयात्रा निकाल कर दिया। 25 सितम्बर 1990 को आडवाणी जी गुजरात के सोमनाथ मंदिर से फैजाबाद तक राम रथयात्रा निकाली।हालांकि यात्रा राम जन्मभूमि अयोध्या तक का सफ़र तो तय नहीं कर सकी क्योंकि बिहार पढ़ाव के दौरान बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालुप्रसाद यादव ने अपने जांबाज आईएएस अधिकारी राजकुमार सिंह (वर्तमान में भाजपा सांसद) के द्वारा गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। बावजूद इसके आडवाणी और भाजपा हिंदुस्तान की जनता के दिल पर छा गये और यही वो समय था जब लालु प्रसाद बिहार सहित देश के तमाम अल्पसंख्यकों के हीरो बन गये थे। राजनीतिक पंडितों का अनुमान था कि रथयात्रा के बाद भाजपा को सरकार बनाने के लिए और इंतजार नहीं करना था, यदि अचानक राजीव गांधी की हत्या न हुई होती। सन् 1991 के चुनाव में आडवाणी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनना लगभग तय था। मगर इसी चुनाव के दौरान ही राजीव गांधी की दुःखद हत्या हो गई,परिणाम यह हुआ कि गांधी की मौत के बाद जहां-जहां चुनाव हुये वहां कांग्रेस बाजी मार ले गई।ऐसे महान नेता ने जिसने देश की कभी राजनीति दिशा और दिशा तय की हों, उसकी विदाई का मंजर खौफनाक है। गधों से प्रेरणां लेने वालों को उप्र पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव से भी कभी-कभी प्रेरणां ले लेनी चाहिये कि तमाम मतभदों और उम्र के इस पढ़ाव पर होने के बावजूद उन्होने मुलायम सिंह को मैदान में उतारा है।बेहतर होता कि सम्मानित आडवाणी जी सन् 2014 में खुद को हांसिया पर धकेले जाने के स्यंम राजनीतिक सन्यास ले लेते, मगर वे आंकलन करने में चूक गये।फिर भी
श्रीगोपाल गुप्ता
परिवर्तन प्रकृति का नियम है मगर परिवर्तन विध्वंसक के बाद हो तो दुःखद है और शांति के साथ हो तो वह यादगार हो जाता है।लेकिन भारतीय जनता पार्टी के लौहपुरुष और राजनीतिक योद्धा लालकृष्ण आडवानी जी का परिवर्तन उनकी परम्परागत लोकसभा सीट गांधीनगर (गुजरात) में पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के हाथों हो, ये दुःखद है और अहसनिय है। मात्र 14 वर्ष की उम्र में आजादी से पहले राष्ट्रीय स्वंम सेवक संघ से जुड़कर उसके पूर्णकालिक प्रचारक बने आडवाणी भारत की राजनीति के धवल सितारे हैं, जिन्होने सन् 1951 में अपनी सेवायें भारतीय जनता पार्टी की पूरवर्ती जनसंघ को सोंप दी थी,इतना लंबा सफर व्यतीत हो जाने के बावजूद वे आज भी कायम थे। मगर पार्टी शीर्ष नेतृत्व ने हाल ही में संसदीय दल की बैठक में पार्टी के बुजुर्ग नेता आडवाणी और मनोहर जोशी को यह अधिकार दिये जाने कि अगला लोकसभा चुनाव-2019 लड़ना या न लड़ना उनकी इच्छाओं पर निर्भर है,बावजूद अगामी लोकसभा चुनाव में पार्टी के दावेदारों की सूची में लालकृष्ण आडवानी का नाम गांधीनगर से काटकर अमित शाह को दिया गया है।निश्चित यह फैसला आडवाणी जी के समर्थकों के लिए अहसनिय और दुःखद है।भारतीय जनता पार्टी के इतिहास में सन् 1970 से संसदीय राजनीति का हिस्सा बने आडवाणी सन् 1989 में पहली मर्तबा लोकसभा का चुनाव नई दिल्ली से लड़कर और जीतकर लोकसभा के सदस्य बने। उसके बाद सन् 1991 में पहली बार गुजरात के गांधीनगर से उन्होने लोकसभा का चुनाव लड़ा और लगातार जीतते हुये सन् 2014 तक गांधीनगर से ही सांसद चुने जाते रहे। कहा जाता है कि इंदिरा गांधी के निधन के बाद सन् 2984 में मात्र दो सीटों पर सिमटी भाजपा को फर्स से अर्श तक लाने का श्रेय आडवाणी जी को ही जाता है।
सन् 84 के बाद हताशा-निराशा के बहाव में बह रही भाजपा को सन् 1986 में राष्ट्रीय अध्यक्ष बने आडवाणी ने ही संभाला और इसका परिणाम सन् 1989 के चुनाव में जब दिखाई दिया तब परिणाम सामने आये। भाजपा ने आडवाणी के नेतृत्व में बड़ी छलांग लगाते हुये दो सीट से ब्यासी सीटों का सफर तय कर लिया। मगर आडवाणी यहीं नहीं रुके,उन्होने तात्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह के मंडल के जबाव में "कमंडल" राम रथयात्रा निकाल कर दिया। 25 सितम्बर 1990 को आडवाणी जी गुजरात के सोमनाथ मंदिर से फैजाबाद तक राम रथयात्रा निकाली।हालांकि यात्रा राम जन्मभूमि अयोध्या तक का सफ़र तो तय नहीं कर सकी क्योंकि बिहार पढ़ाव के दौरान बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालुप्रसाद यादव ने अपने जांबाज आईएएस अधिकारी राजकुमार सिंह (वर्तमान में भाजपा सांसद) के द्वारा गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। बावजूद इसके आडवाणी और भाजपा हिंदुस्तान की जनता के दिल पर छा गये और यही वो समय था जब लालु प्रसाद बिहार सहित देश के तमाम अल्पसंख्यकों के हीरो बन गये थे। राजनीतिक पंडितों का अनुमान था कि रथयात्रा के बाद भाजपा को सरकार बनाने के लिए और इंतजार नहीं करना था, यदि अचानक राजीव गांधी की हत्या न हुई होती। सन् 1991 के चुनाव में आडवाणी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनना लगभग तय था। मगर इसी चुनाव के दौरान ही राजीव गांधी की दुःखद हत्या हो गई,परिणाम यह हुआ कि गांधी की मौत के बाद जहां-जहां चुनाव हुये वहां कांग्रेस बाजी मार ले गई।ऐसे महान नेता ने जिसने देश की कभी राजनीति दिशा और दिशा तय की हों, उसकी विदाई का मंजर खौफनाक है। गधों से प्रेरणां लेने वालों को उप्र पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव से भी कभी-कभी प्रेरणां ले लेनी चाहिये कि तमाम मतभदों और उम्र के इस पढ़ाव पर होने के बावजूद उन्होने मुलायम सिंह को मैदान में उतारा है।बेहतर होता कि सम्मानित आडवाणी जी सन् 2014 में खुद को हांसिया पर धकेले जाने के स्यंम राजनीतिक सन्यास ले लेते, मगर वे आंकलन करने में चूक गये।फिर भी

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