
हाल ही में 70 वर्षीय गोटाभाया राजपक्षे ने श्रीलंका के आठवें राष्ट्रपति के तौर पर शपथ ली. सेना में 20 साल रहने के बाद लेफ़्टिनेंट कर्नल पद से रिटायर हुए गोटाभाया राजपक्षे ने आईटी क्षेत्र में भी काम किया है.
2005 में वो अपने बड़े भाई महिंदा राजपक्षे के राष्ट्रपति बनने के बाद 10 साल तक श्रीलंका के रक्षा प्रमुख भी रहे और उनके खाते में देश के तमिल चरमपंथी संगठन लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम यानी एलटीटीई के ख़ात्मे का श्रेय दर्ज है.
श्रीलंका में गृह युद्ध के दौरान तक़रीबन एक लाख लोगों की मौत हुई थी. 2009 में गृह युद्ध समाप्त होने के बाद भी लोगों के ग़ायब होने का सिलसिला थमा नहीं था. कहा जाता है कि इस दौरान आत्मसमर्पण करने वाले चरमपंथियों को भी मार दिया गया और 20 हज़ार से अधिक आम लोग ग़ायब हुए.
उस दौरान कुछ ऐसी सफ़ैद वैन घूमा करती थीं जो मानवाधिकार कार्यकर्ता या एलटीटीई के समर्थक रहे लोगों को उठा लिया करती थीं. गृह युद्ध के समाप्त होने के बाद गोटाभाया राजपक्षे से वरिष्ठ पत्रकार एस वेंकटनारायण ने मुलाक़ात की थी.
वो कहते हैं कि तब गोटाभाया ने एलटीटीई पर जीत का श्रेय अपने भाई और तत्कालीन राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे को दिया था.
वरिष्ठ पत्रकार एस वेकंटनारायण बताते हैं, "महिंदा राजपक्षे ने गोटभाया से कहा था कि उन्हें यह लड़ाई ख़त्म करनी है और इसके लिए उन्हें जैसे हथियार चाहिए वो उन्हें बताएं. गोटाभाया ने इस ख़ास मिशन के लिए भारत से हथियार मांगे थे लेकिन मनमोहन सिंह सरकार ने डीएमके के साथ गठबंधन होने के कारण उनकी मदद नहीं की. फिर गोटाभाया ने चीन और पाकिस्तान से मदद मांगी और उन्होंने श्रीलंका को यह हथियार दिए थे."

सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से हुआ लाभ
नौ भाई-बहनों में पांचवें नंबर के गोटाभाया बहुसंख्यक सिंहला समुदाय और देश के सबसे ताक़तवर राजघराने से ताल्लुक़ रखते हैं.
चुनाव में उन्हें 52.55 फ़ीसदी वोट मिले. इस चुनाव में उनके ख़िलाफ़ सजित प्रेमदासा की चुनौती थी जो पिछली मैत्रिपाला सिरिसेना सरकार में अहम पद संभाल चुके हैं.
इसी साल अप्रैल में ईस्टर के मौक़े पर सिलसिलेवार बम धमाके हुए थे जिसमें 250 से अधिक लोगों की मौत हुई थी और 500 से अधिक लोग घायल हुए थे.
इस घटना के बाद देश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण साफ़-साफ़ दिखाई दिया. बहुसंख्यक बौद्ध जो सिंहला समुदाय से आते हैं उन्होंने मुसलमानों का बहिष्कार किया.
सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का सीधा-सीधा फ़ायदा गोटाभाया राजपक्षे को हुआ. दक्षिण एशिया मामलों के जानकार प्रोफ़ेसर एसडी मुनी कहते हैं कि गोटाभाया का चुनाव प्रचार असुरक्षा और सरकार की नाकामियों पर केंद्रित था.
प्रोफ़ेसर एसडी मुनि कहते हैं, "देश में असुरक्षा के मुद्दों पर गोटाभाया का चुनाव प्रचार केंद्रित था, जिसका लाभ उन्हें चुनावों में हुआ. उनका कहना था कि वो देश में आतंकवाद और अतिवादियों से जूझने में सक्षम हैं. दूसरा लाभ उन्हें मैत्रिपाला सिरिसेना सरकार की नाकामियों से मिला. उन्होंने कहा कि यह सरकार निकम्मी है. उनके प्रतिद्वंद्वी सुजित प्रेमदासा भी उसी सरकार का हिस्सा थे, इसका भी लाभ उन्हें मिला."
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अल्पसंख्यकों का डर कैसे करेंगे कम
सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के कारण श्रीलंका के अलपसंख्यक समुदायों मुसलमानों और तमिलों में एक असुरक्षा का डर बैठा हुआ है. गृह युद्ध के दौरान गोटाभाया की कार्रवाई ने भी उन्हें डरा रखा है. हालांकि, शपथ ग्रहण के बाद दिए अपने भाषण में गोटाभाया कह चुके हैं कि वो सभी समुदायों को साथ लेकर चलेंगे और विकास के मुद्दों पर काम करेंगे. तो क्या गोटाभाया के इस वादे पर विश्वास किया जा सकता है?
प्रोफ़ेसर एसडी मुनि कहते हैं, "गोटाभाया के पुराने व्यवहार को आज वैसे ही नहीं देखा जा सकता है क्योंकि रक्षा प्रमुख रहते समय वो अपनी पार्टी के अध्यक्ष नहीं थे और जो राष्ट्रपति कहते थे वो उन्हें करना पड़ता था. दूसरा उस समय श्रीलंका एलटीटीई से जूझ रहा था जो अब नहीं है."
"मैं समझता हूं कि जो डर और ख़ौफ़ महिंदा राजपक्षे के समय था वो अब कम होना चाहिए. हालांकि मैं मानता हूं कि गोटाभाया राजपक्षे भी मज़बूत और तानाशाह तरीक़े से काम करते हैं. वो जो ठान लेते हैं करते हैं और किसी की परवाह नहीं करते हैं. लेकिन महिंदा राजपक्षे की नीतियों से उन्हें अलग दिखना होगा."
गोटाभाया ने कहा है कि गृह युद्ध के दौरान मानवाधिकार उल्लंघनों के आरोपों को लेकर वो कुछ नहीं करेंगे. श्रीलंका के उत्तर और पूर्वी इलाक़े तमिल बहुल हैं और वो ख़ुद को दूसरे दर्जे का इंसान समझते हैं.
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तमिलों को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए गोटाभाया को क्या करना चाहिए? इस सवाल पर एस. वेंकटनारायण कहते हैं कि गोटाभाया को सबको साथ लेकर चलना होगा.
वो कहते हैं, "मुस्लिम और तमिल काफ़ी पढ़ा-लिखा और कामकाज़ी तबका है. श्रीलंका को अगर आगे बढ़ना है तो सबको साथ लेकर आगे बढ़ना होगा क्योंकि तमिल बिल्कुल नाख़ुश हैं. इसीलिए वो राजपक्षे परिवार के ख़िलाफ़ वोट डालते आए हैं. अगर वो सबको साथ लेकर नहीं चलेंगे तो एलटीटीई जैसे दूसरे संगठन फिर पैदा हो सकते हैं और उनका सरकार चलाना आसान नहीं होगा."
वहीं, प्रोफ़ेसर मुनि कहते हैं कि गोटाभाया को तमिलों को अधिक अधिकार देने होंगे और उत्तर-पूर्वी श्रीलंका के विकास की शुरुआत करनी होगी.
वो कहते हैं, "तमिलों में विश्वास पैदा करें और जिन पर आतंकवाद के मामले चल रहे हैं वो उन्हें ख़त्म करने का प्रयास करें. हालांकि उन्होंने अपने पुराने सेना प्रमुख को ही देश का रक्षा प्रमुख बनाया है जो तमिलों के ख़िलाफ़ लड़ाई में आगे थे. ये सब तमिलों के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं. लेकिन देखना यह होगा कि वो अपनी ताक़तों को कितना कम करते हैं और तमिलों को कितना सम्मान देते हैं. ये सब उनके आगे चुनौतियां होंगी."

चीन के क़रीब है श्रीलंका?
देश में सांप्रदायिक सौहार्द बढ़ाने के अलावा विदेश नीति भी गोटाभाया के आगे एक प्रमुख चुनौती है. ऐसा माना जाता है कि सिरिसेना की ही तरह गोटाभाया भी चीन के क़रीब हैं.
श्रीलंका पर चीन का 50 हज़ार करोड़ से अधिक का क़र्ज़ था जिसके बाद सिरिसेना सरकार ने हम्बनटोटा बंदरगाह चीन को 99 साल के लिए लीज़ पर दे दिया था. गोटाभाया साफ़ कर चुके हैं कि वो हम्बनटोटा की लीज़ की समीक्षा करेंगे. चीन के कई हाईवे और पावर प्रोजेक्ट अभी और श्रीलंका में बनने हैं. क्या चीन और श्रीलंका वाक़ई में बेहद अच्छे दोस्त हैं और वो भारत को नज़रअंदाज़ कर रहा है?
एस. वेंकटनारायण कहते हैं, "काफ़ी लोग भारत में सोचते हैं कि राजपक्षे परिवार चीन का 'चमचा' है क्योंकि 10 साल पहले वो जब एलटीटीई के ख़िलाफ़ लड़ रहे थे तब मजबूरन उन्हें चीन के पास जाना पड़ा. तब चीन ने उन्हें बिना सवाल किए क़र्ज़ दिया. वो कैसे निपटेंगे यह देखना होगा. श्रीलंका और भारत के बीच सिर्फ़ आर्थिक संबंध नहीं है बल्कि दोनों के बीच सांस्कृतिक और धार्मिक संबंध हैं. ऐसा नहीं है कि गोटाभाया भारत को नज़रअंदाज़ करके चीन से नज़दीकी बढ़ाएंगे."
वहीं, प्रोफ़ेसर मुनि का मानना है कि चीन और श्रीलंका की नज़दीकी से भारत के अलावा अमरीका, यूरोप, जापान और ऑस्ट्रेलिया को भी नाराज़गी होगी. गोटाभाया के आगे चुनौती है कि वो इनको नाराज़ किए बिना चीन से पैसा और साधन लेता रहे. विदेश नीति उनके आगे सबसे बड़ी चुनौती है, हिंद महासागर में श्रीलंका सामरिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण देश है. चीन चाहेगा कि श्रीलंका जैसे मित्र उसकी मदद करते रहें.

श्रीलंका के भारत से कैसे संबंध होंगे
गोटाभाया राजपक्षे के राष्ट्रपति बनते ही भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर उन्हें बधाई देने कोलंबो पहुंचे और उन्होंने उन्हें भारत आने का न्यौता दिया. उन्होंने इस न्यौते को स्वीकार किया और वो 29 नवंबर को भारत दौरे पर आ रहे हैं.
भारत दौरे से पहले श्रीलंका के नए राष्ट्रपति गोटाभाया राजपक्षे ने कहा है कि वो भारत के साथ मिलकर काम करेंगे और वो ऐसा कुछ नहीं करेंगे जिससे उसके पड़ोसी देश को कोई नुक़सान हो.
साथ ही गोटाभाया ने यह भी कहा कि वो भारत और चीन दोनों के साथ क़रीबी रूप से काम करना चाहते हैं.
भारत अपने यहां आने वाले सामान के लिए कोलंबो बंदरगाह का इस्तेमाल करता है लेकिन भारत ने पूर्वी और पश्चिमी बंदरगाह के कंटेनर टर्मिनल को विकसित करने का प्रस्ताव दिया था जिसे सिरिसेना ने नहीं माना था. भारत को पश्चिमी ग्रीनफ़ील्ड प्रोजेक्ट दिया गया है. भारत को श्रीलंका से अपने रिश्ते मज़बूत करने के लिए और क्या करना चाहिए?
प्रोफ़ेसर मुनि कहते हैं, "भारत की एक ओर परेशानी यह है कि उसके बनाए गए प्रोजेक्ट बहुत धीमे-धीमे पूरे होते हैं. भारत ने श्रीलंका में 50 हज़ार घर बनाकर दिए हैं, इसके अलावा कई होटल, सड़क परियोजनाएं भी भारत ने पूरी की हैं लेकिन यह धीमी हैं. भारत हम्बनटोटा के एयरपोर्ट का परिचालन कर रहा है."
"इसके साथ ही भारत 13वें संशोधन के तहत श्रीलंका को तमिलों की सभी बातों को मानने को कहता है लेकिन अब यह प्रासंगिक नहीं है. भारत श्रीलंका की नज़रों में सिर्फ़ तमिलों का मसीहा बनकर न उभरे बल्कि सिंहली क्षेत्रों में भी प्रोजेक्ट अपने हाथों में ले. कुछ सालों पहले भारत ने इस पर मामूली शुरुआत की है. अगर गोटाभाया चीन को ऐसे प्रोजेक्ट देते हैं जिससे भारत की सामरिक सुरक्षा को ख़तरा हो तो उससे संबंध ख़राब होंगे. अगर इन दो पहलुओं को गोटाभाया ठीक से देख लें तो उनके भारत से अच्छे संबंध हो सकते हैं."
भारत और राजपक्षे परिवार के संबंध कुछ कड़वे ज़रूर हो गए थे हालांकि पिछले दो सालों से भारत इस संबंध को सुधारने की कोशिश कर रहा है.
एक तरफ़ पाकिस्तान-चीन संबंध हैं तो दूसरी ओर नेपाल चीन की ओर खिसक रहा है और अब श्रीलंका चीन के नज़दीक जा रहा है तो भारत नहीं चाहेगा कि उसके सभी क़रीबी उससे दूर होते चले जाएं.
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