शिक्षा का अधिकार कानून (आरटीई) को लागू हुए दस वर्ष हो गये हैं. लेकिन आज भी 15 से 18 वर्ष आयु वर्ग की लगभग 40 प्रतिशत किशोर लड़कियां स्कूल नहीं जा रही हैं.जबकि गरीब परिवारों की 30 प्रतिशत लड़कियों ने तो कभी क्लास रूम में क़दम रखा ही नहीं है.ऐसा विश्व बैंक व यूनिसेफ़ के सहयोग से तैयार की गई राइट टू एजुकेशन फोरम और सेंटर फॉर बजट पालिसी स्टडीज की रिपोर्ट से उजागर हुआ है.अत: यह प्रश्न महत्वपूर्ण हो जाता है कि जब संविधान के अनुच्छेद 21ए के तहत आरटीई कानून में 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए आवश्यक रूप से शिक्षा प्राप्त करने का प्रावधान है तो फिर 30 प्रतिशत गरीब लड़कियों ने कभी स्कूल का रुख क्यों नहीं किया है ? साथ ही यह भी कि 40 प्रतिशत किशोर लड़कियां स्कूल में क्यों नहीं हैं?
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यह प्रश्न इसलिए भी प्रासंगिक हो जाता है क्योंकि सत्ता संभालने के बाद से ही वर्तमान केंद्र सरकार का नारा ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का रहा है. बेटी कितनी बच रही हैं.फ़िलहाल बहस इस पर नहीं है; यहां सवाल यह है कि बेटियां पढ़ क्यों नहीं रही हैं? दरअसल, इसकी प्रमुख वजह यह है कि शिक्षा को अधिकार तो बना दिया गया लेकिन पूरे देश में आरटीई का पालन मात्र 12.7 प्रतिशत ही हुआ है, जोकि निश्चितरूप से चिंताजनक है.आरटीई का पालन हो भी तो कैसे हो जब शिक्षा पर सरकारी खर्च निरंतर कम होता जा रहा है.भारत सरकार के बजट दस्तावेजों से मालूम होता है कि 2014 से शिक्षा पर कुल खर्च निरंतर कम किया जाता रहा है.
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साल 2014-15 के बजट में कुल सरकारी खर्च का मात्र 4.14 प्रतिशत शिक्षा पर व्यय किया गया और इसके बाद इसमें इस प्रकार कटौती की गई – 3.75 प्रतिशत (2015-16),
3.65 प्रतिशत (2016-17),
2017-18 में यह पिछले वर्ष की तुलना में थोड़ा बढ़कर 3.74 प्रतिशत हुआ, लेकिन फिर 2018-19 में गिरकर 3.4 प्रतिशत रह गया
और 2019-20 में भी इतना ही यानी 3.4 प्रतिशत था.
अगर इस अवधि के दौरान जीडीपी के हिसाब से कुल शिक्षा खर्च देखें तो हम अपनी जीडीपी का एक प्रतिशत भी शिक्षा पर खर्च नहीं करते हैं.
साल 2014-15 में जीडीपी का मात्र 0.53 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च किया गया,
जो 2015-16 व 2016-17 में गिरकर क्रमश: 0.5 प्रतिशत व 0.47 प्रतिशत रह गया.
2017-18 में यह 0.48 प्रतिशत था,
2018-19 में 0.44 प्रतिशत
और 2019-20 में 0.45 प्रतिशत.
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बहरहाल,उक्त रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि शिक्षा व सशक्तिकरण इंडेक्स का सीधा संबंध प्रति-बच्चा खर्च से है. देश के हर राज्य में यह अलग अलग है.
केरल में शत-प्रतिशत साक्षरता संभवत: इसी कारण से है कि वह इस इंडेक्स में टॉप करते हुए प्रति वर्ष प्रति बच्चा 11,574 रूपये खर्च करता है, जबकि इस संदर्भ में देश के 17 बड़े राज्यों में उत्तर प्रदेश व बिहार क्रमश: 16वें व 17वें स्थान पर हैं.
बिहार प्रति वर्ष प्रति बच्चा सबसे कम पैसा खर्च करता है,
मात्र 2869 रूपये.यह रिपोर्ट इंटरनेशनल डे ऑफ़ एजुकेशन और नेशनल गर्ल चाइल्ड डे (24 जनवरी) को जारी की गयी.
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इस रिपोर्ट में कहा गया है कि हालांकि वहनीय विकास लक्ष्यों का उद्देश्य सभी महिलाओं व लड़कियों के लिए लिंग समता और सशक्तिकरण है, लेकिन भारत में लाखों बच्चे ‘आउट ऑफ़ स्कूल’ हैं, जिनमें बड़ा हिस्सा लड़कियों का है.इस तथ्य पर चिंता व्यक्त करते हुए कि लड़कों की तुलना में लड़कियां दो गुणा कमज़ोर स्थिति में हैं कम से कम चार वर्ष की स्कूलिंग प्राप्त करने के संदर्भ में,रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों की 30 प्रतिशत लड़कियों ने अपने जीवन में कभी क्लास रूम के भीतर कदम नहीं रखा है.भारत में महिलाओं का साक्षरता दर 65 प्रतिशत है.
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आरटीई फोरम के राष्ट्रीय संयोजक अम्बरीश राय के अनुसार,
भारत में 60 मिलियन से अधिक बच्चों में शिक्षा का अभाव है और इसकी बड़ी वजह स्कूली शिक्षा के लिए अपर्याप्त फंडिंग है.जिससे आरटीई कानून के तहत जो लाभ मिलने चाहिए वह नहीं मिल पा रहे हैं. जबकि आरटीई कानून प्रारम्भिक शिक्षा के सार्वभौमिकीकरण का महत्वपूर्ण माध्यम है.राय कहते हैं, “देश में जो बालिका शिक्षा की स्थिति है वह गंभीर चिंता का विषय है.” इस रिपोर्ट के अनुसार, अनेक अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि शिक्षा में जन निवेश और बाल विकास व सशक्तिकरण में गहरा संबंध है.
रिपोर्ट का कहना है कि स्कूलिंग का प्रत्येक अतिरिक्त वर्ष, आय में 8 से 10 प्रतिशत का इज़ाफा कर देता है (महिलाओं के लिए अधिक वृद्धि होती है), जिसका अर्थ यह है कि शिक्षा न केवल अर्थव्यवस्था के विकास में सहायक होती है बल्कि गरीबी दूर करने में भी मदद करती है|.
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रिपोर्ट में जिन 17 राज्यों का उल्लेख कि

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