शिवपुरी। महान कथाकार प्रेमचंद की 143वीं जयंती के अवसर पर प्रगतिशील लेखक संघ की शिवपुरी इकाई ने एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया। इस विचार गोष्ठी में प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम अधिवेशन में प्रेमचंद द्वारा दिए गए ऐतिहासिक अध्यक्षीय भाषण का पाठ किया गया। उसके उपरांत इस भाषण की वर्तमान समय में प्रासंगिकता और प्रेमचंद के साहित्य पर चर्चा की गई। जिसमें स्थानीय साहित्यकारों ने अपने—अपने विचार व्यक्त किए। लेखक—पत्रकार सुनील व्यास का कहना था, ''प्रेमचंद ने अपने अपने अध्यक्षीय भाषण में साहित्य और समाज को लेकर जो सवाल उठाए थे, वे आज भी प्रासंगिक हैं। प्रेमचंद का कहना था कि साहित्यकार जो भी लिखे, आम आदमी को ज़ेहन में रखकर लिखे। ताकि उस तक उनके विचार आसानी से पहुंच जाएं।'' कवि अख़लाक़ खान ने कहा, ''आज ऐसे साहित्य की बेहद ज़रूरत है, जो समाज को आगे ले जाए। हमें सही—ग़लत की पहचान कराए। साहित्यकार राजनीतिक नहीं है और न एक्टिविस्ट। लेकिन वह क्रांति के लिए ज़रूर ज़मीन तैयार करता है। आज़ादी से पहले प्रगतिशील लेखक संघ और प्रेमचंद ने यही काम किया।''
कवि राम पंडित ने कहा, ''प्रेमचंद का संपूर्ण साहित्य समाज को जोड़ने का काम करता है। उनके साहित्य ने हमें एक नई दिशा दी।'' सीनियर एडव्होकेट रूप किशोर वशिष्ट ने कहा, ''कोई भी विचार पहले मन में आता है, फिर वह काग़ज़ पर उतरता है। मौजूदा साहित्यकारों को प्रेमचंद के क्रांतिकारी विचारों से प्रेरणा लेना चाहिए।'' गीतकार विनय प्रकाश जैन 'नीरव' ने अपनी बात प्रेमचंद के इस वाक्य से शुरू की, 'साहित्य जीवन की आलोचना है।'' उन्होंने कहा, ''इसका मतलब ये है कि लेखक को अपने साहित्य में जीवन के प्रति जो सकारात्मक भाव हैं, उन्हें व्यक्त करना चाहिए। साहित्य का उद्देश्य सामाजिक समस्याओं को केन्द्र में लाना है। हमें ऐसे साहित्य का सृजन करना चाहिए, जो समाज में बदलाव ला सके।'' लेखक—चिंतक ओमप्रकाश शर्मा ने कहा, ''प्रगति का मतलब है, आगे बढ़ना। वर्तमान समय में पूरी दुनिया में जो पूंजीवादी व्यवस्था है, उससे सभी दुखी हैं। इसने करोड़ों लोगों को ग़रीबी में धकेल दिया है। समाज में ऐसी व्यवस्था क़ायम हो, जिसमें सभी की भलाई हो। प्रेमचंद ऐसा समाज बनाना चाहते थे, जिसमें सभी को बराबर के अधिकार मिलें।''
प्रगतिशील लेखक संघ इकाई शिवपुरी के सचिव लेखक ज़ाहिद खान ने कहा, ''हिंदी साहित्य में प्रेमचंद ऐसे पहले साहित्यकार थे, जो गांव और किसान को केन्द्र में लाए। उन्होंने अपने साहित्य में किसानों और हाशिए से नीचे के समाज की बात की। 'रंगभूमि', 'कर्मभूमि' और उनका कालजयी उपन्यास 'गोदान' इसके उदाहरण हैं। लेखक—आलोचक डॉ. पुनीत कुमार ने कहा, ''जब तक समाज और साहित्य है, प्रेमचंद का यह भाषण हमेशा प्रासंगिक रहेगा। इस भाषण में उन्होंने जहां साहित्यकारों को उनके कर्त्तव्य याद दिलाए हैं, वहीं इसमें एक बेहतर समाज का सपना भी है। आज प्रेमचंद के विरोधी उन पर कई अनर्गल आरोप लगाते हैं कि 'उनका साहित्य दलित, स्त्री विरोधी है।' जबकि उनकी तमाम कहानियां पढ़ें, तो मालूम चलता है कि वे इन दोनों ही वर्ग के प्रबल पक्षधर थे।
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